यमुनानगर के एमएलएन कॉलेज में हुआ असगर वजाहत के नाटक जिस लाहौर नहीं देख्या का मंचन।
यह नाटक ऐसा है, जिसे बार बार देखने को मन करता है। वहीं मानवीय रिश्ते। वहीं संवेदना। वहीं चिंता। तकलीफ भी वहीं। सब कुछ वैसा ही है। कुछ भी तो नहीं बदला। लगता है आज भी हम उसी दोराहे पर खड़े हैं। वह दोहराया जहां से बंटे थे दो देश।
एक पाकिस्तान दूसरा भारत। यह सिर्फ जमीन का बंटवारा भर नहीं था। बंटवारा था इंसान का। इंसानियत का। प्यार और मोहब्बत भी बंटे थे, इस बंटवारे में। जिस लाहौर नहीं देख्या...। एक बार फिर से मंच पर वही संवेदना बिखेर गया। जिसके दर्द को दर्शक देर तक महसूस करते रहे। सोचते रहे। और शायद समझने की कोशिश कर रहे थे। उस वक्त को। जो गुजर गया। पर उसके जख्म अभी भी हरे हैं। ताजे हैं, जैसे किसी नश्तर ने अभी अभी दिए हो। खून रिस रहा हो उनमें। मुकंद लाल नेशनल (एमएलएन) कालेज के हाल में हुआ असगर वजाहत के नाटक जिस लाहौर नहीं देख्या... अभी भी उतना ही नया है, जितना पहली बार देखने पर लगा था। कसी हुई पटकथा। इस पर कसा हुआ अभिनय। इतनी बारीकी से बात कह गया। लगा कि मंच से सीधे संवाद हो रहा है। १९४७ के बंटवारे के बाद लाहौर से जब हिंदू भारत आए। एक अकेली माई हिंदू औरत लाहौर में हार गई। उसका घर लखनऊ से लाहौर आए मुस्लिम महाजिर मिर्जा साहिब को अलाट हो जाता है। घर में तन्हा औरत को पाकर वह परेशान हो जाता है। फिर शुरू होता है माई को घर से बाहर निकालने का सिलसिला। और, यहीं है बस वह नाटक। निर्देशन जावेद खान के निदेशन में मंचन किया गया नाटक अपनी छाप छोडऩे में पूरी तरह से कामयाब रहा।
रतन की अम्मा की भूमिका में अवनीत कौर और सिकंदर मिर्जा की भूमिका में मुसव्विर अली खान अपनी अपनी भूमिका को सार्थक कर गए। इसके साथ ही विक्रांत जैन, विशाल, नीलम अग्रवाल, शानू, इतिशर्मा, वसी उर्र रहमान, आनंद सौदाई, संदीप शर्मा, सोहन कुमार, ज्योति बतरा, सांची अग्रवाल, सुहैल उबादा, मेहेरबान मलिक, उसामा व शाहिद ने भी अच्छा अभिनय मंच पर प्रस्तुत किया। सभी ने इस मंचन की खुले दिल से सराहना की।
एक पाकिस्तान दूसरा भारत। यह सिर्फ जमीन का बंटवारा भर नहीं था। बंटवारा था इंसान का। इंसानियत का। प्यार और मोहब्बत भी बंटे थे, इस बंटवारे में। जिस लाहौर नहीं देख्या...। एक बार फिर से मंच पर वही संवेदना बिखेर गया। जिसके दर्द को दर्शक देर तक महसूस करते रहे। सोचते रहे। और शायद समझने की कोशिश कर रहे थे। उस वक्त को। जो गुजर गया। पर उसके जख्म अभी भी हरे हैं। ताजे हैं, जैसे किसी नश्तर ने अभी अभी दिए हो। खून रिस रहा हो उनमें। मुकंद लाल नेशनल (एमएलएन) कालेज के हाल में हुआ असगर वजाहत के नाटक जिस लाहौर नहीं देख्या... अभी भी उतना ही नया है, जितना पहली बार देखने पर लगा था। कसी हुई पटकथा। इस पर कसा हुआ अभिनय। इतनी बारीकी से बात कह गया। लगा कि मंच से सीधे संवाद हो रहा है। १९४७ के बंटवारे के बाद लाहौर से जब हिंदू भारत आए। एक अकेली माई हिंदू औरत लाहौर में हार गई। उसका घर लखनऊ से लाहौर आए मुस्लिम महाजिर मिर्जा साहिब को अलाट हो जाता है। घर में तन्हा औरत को पाकर वह परेशान हो जाता है। फिर शुरू होता है माई को घर से बाहर निकालने का सिलसिला। और, यहीं है बस वह नाटक। निर्देशन जावेद खान के निदेशन में मंचन किया गया नाटक अपनी छाप छोडऩे में पूरी तरह से कामयाब रहा।
रतन की अम्मा की भूमिका में अवनीत कौर और सिकंदर मिर्जा की भूमिका में मुसव्विर अली खान अपनी अपनी भूमिका को सार्थक कर गए। इसके साथ ही विक्रांत जैन, विशाल, नीलम अग्रवाल, शानू, इतिशर्मा, वसी उर्र रहमान, आनंद सौदाई, संदीप शर्मा, सोहन कुमार, ज्योति बतरा, सांची अग्रवाल, सुहैल उबादा, मेहेरबान मलिक, उसामा व शाहिद ने भी अच्छा अभिनय मंच पर प्रस्तुत किया। सभी ने इस मंचन की खुले दिल से सराहना की।
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